श्री विपरीत प्रत्यंगिरा देवी मंदिर - शक्ति का प्राचीन सिद्ध स्थान

स्वयंभू पिंडी स्वरूपा माँ विपरीत प्रत्यंगिरा

क्या है माँ विपरीत प्रत्यंगिरा की कथा और यह मंदिर
आओ जानते हैं कौन है मां विपरीत प्रत्यंगिरा देवी ये परम ब्रह्म कि वह शक्ति है जो संपूर्ण विश्व का कल्याण करती है पालन करती है और तामसिक शक्ति के रूप में संकल्प अभिषेक का सिंगार करती है यह विद्या भोग सुख राज्य ऐश्वर्या सिद्धि तथा मोक्ष प्रदान करने वाली देवी है इतना ही नहीं यह परम विद्या है तथा परमेश्वर को प्राप्त करने वाली करने वाली है यह विद्या उत्तम योग देने वाली है अनेक प्रकार के ऐश्वर्या तथा सुख को देने वाली है धन संपत्ति व राज्य प्रदान करने वाली तथा सिद्धि और मोक्ष प्रदान करने वाली |
भगवती प्रत्यंगिरा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई कथाएं प्रचलित हैं। उनमें सबसे अधिक प्रचलित कथा का सम्बन्ध 'शरभेश्वर' अथवा 'आकाश-भैरव' प्रकरण से है। इनके अवतार (शरभेश्वर) की कथा इस प्रकार है- हिरण्यकशिपु के वध और भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह का अवतार लिया। वे नृसिंह रूप में । शिर सिंह का तथा धड़ मनुष्य का था। इस प्रकार का अपूर्व अवतार लेने और परम शक्तिशाली और पराक्रमी राक्षसराज हिरण्यकशिपु का वध करने के कारण भगवान विष्णु में अहं भाव प्रबल हो गया। उनका क्रोध भी अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया था। इससे सभी देवगण चिन्तातुर हो उठे कि नृसिंह के क्रोध का शमन किस प्रकार होगा। अन्ततः भगवान शिव ने एक विचित्र पक्षी का रूप धारण किया जिसे शरभावतार भी कहा गया। इनका आधा शरीर पक्षी का तथा आधा शरीर मृग का था। इनके आठ पैर और दो विशाल पंख थे। इस शरभावतार के तीन नेत्र थे, जिनमें चन्द्र, सूर्य व अग्नि का वास था। वज्र के समान नख और अत्यन्त ही उग्र व चंचल जीभ तथा दोनों पंखों में काली व दुर्गा विराजित थी। कण्ठ में काल भैरव, हृदय में बटुक भैरव, उदर-भाग में प्रलयकाल रूपी वाडवाग्नि और जंघाओं में व्याधि व मृत्यु थी। उनके आठों पैरों में भगवान शिव की अष्ट मूर्तियां शर्व, भव, रुद्र, उग्र, भीम, ईशान, महादेव और पशुपति विराजित थीं। पैरों के नाखूनों में इन्द्र का वास था। आवेश से पूर्ण लहराती पूंछ लिये इनकी उड़ने की गति प्रचण्ड वायु के वेग वाली थी। परन्तु तब भी नृसिंह की उग्रता कम नहीं हुई और वह शरभेश्वर रूपी भगवान शिव से भीषण युद्ध करने लगे जो 18 दिन चला। निरन्तर युद्ध के कारण शरभेश्वर कुछ थकान महसूस करने लगे। उन्होंने ऊंची उड़ान भरी। तब उनके एक पंख से महाकाली का एक स्वरूप जिसे भद्रकाली कहा जाता है, प्रकट हुई और नृसिंह पर भयंकर प्रहार किया जिससे नृसिंह को मूर्च्छा सी आ गयी। यही भद्रकाली उस समय प्रत्यंगिरा के रूप में अवतरित हुई। यह प्रत्यंगिरा देवी अत्यंत ही उग्र स्वभाव वाली तथा अत्यंत ही भयंकर है, परंतु अपने भक्तों के लिए बहुत करुणापूर्ण हैं। यदि भगवती प्रत्यंगिरा अथवा विपरीत प्रत्यंगिरा देवी का विधि पूर्वक अनुष्ठान किया जाए तो साधक के सभी शत्रु नष्ट हो जाते हैं। ऐसी साधक की कभी अकाल मृत्यु नहीं होती। शत्रुओं द्वारा साधक के विरुद्ध किए जाने वाले समस्त अभिचार कर्म भगवती की कृपा से स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं अथवा शत्रु पर ही दोगुने प्रभाव से वापस लौटकर उसका संहार कर देते हैं। यह भगवती शत्रुओं को नष्ट करने के साथ-साथ शत्रुता को भी नष्ट करती है और शत्रु साधक के वशीभूत हो जाते हैं। इनका साधक संसार में रहते हुए लक्ष्मी, भूमि, वाहन, पुत्र-पौत्र आदि सभी प्रकार का सुख इसी जीवन में प्राप्त करता है। वह समस्त विद्याओं को सहज ही प्राप्त कर लेता है। इस विद्या के प्रभाव से निर्धन और दरिद्र भी धनवान तथा मूर्खतम् व्यक्ति भी श्रेष्ठ ज्ञानी हो जाता है। उसके घर में समस्त सिद्धियां स्वयं ही निवास करती हैं और साधक की सहायिका बन जाती हैं।कार्यभेद से भगवती प्रत्यंगिरा भी विभिन्न भेद वाली हैं। वे ही भद्रकालीरूपा, कौशिकीरूपा,शत्रुनीशोदीरनिरूपा इत्यादि रूप में हैं। भगवती पार्वती की देह से कौशिकीदेवी निकल जाने के उपरांत पार्वती जी का रंग काला हो गया और वह कालिका के नाम से प्रसिद्ध हुई। पार्वती जी के शरीर से निकलकर देवी कौशिकी ही प्रत्यंगिरा कहलाई। इन्हें ही काली, भद्रकाली, आदि नामों से जाना जाता है। कहने का तात्पर्य यह है की काली, भद्रकाली तथा प्रत्यंगिरा में कोई भेद नहीं है। केवल इनके कार्य में भिन्नता है। भगवती प्रत्यंगिरा का कोई स्वतंत्र आवरण यंत्र नहीं है, इनका समर्चन मां गौरी की पीठ पर ही होता है। शत्रुओं के द्वारा किए गए अभिचार कर्मों के निस्तारण हेतु भगवती प्रत्यंगिरा का अनुष्ठान पूर्णतः उपयोगी और महत्वपूर्ण है। इनका अनुष्ठान वैदिक एवं तांत्रिक- दोनों में ही अनुमन्य है और तांत्रिकों एवं वैदिक ब्राह्मणों में विशिष्ट रूप से प्रशंसनीय है। अभीचार कर्मों की निवृत्ति के लिए प्रत्यङ्गिरा-अनुष्ठान पूर्णता विश्वसनीय है।

कहाँ है यह प्राचीन शक्तिपीठ
जय मां महाविद्या विपरीत प्रत्यंगिरा देवी महाविद्या विपरीत प्रत्यंगिरा देवी वास्तव में संपूर्ण शक्तियों का एक रूप है कलयुग में माँ को दया के रूप से भी जाना जाता है मां विपरीत प्रत्यंगिरा देवी का मंदिर जम्मू कश्मीर उधमपुर नरसू धर्मस्थल सूर्य पुत्री तभी नदी के तट पर जंगल के एकांत में स्थित है यह स्थान ऋषियों की तपस्या भूमि है यह मंदिर स्वयंभू पिंडी दर्शन है जो भारत में एक ही मंदिर है जहां पर पहले सिर्फ बलि प्रथा थी अब अखंड ज्योत का मां ज्वाला के रूप में आने के बाद माता रानी के दरबार में हवन यज्ञ की आज्ञा हुई है अब जहां पर सभी कष्टों मुक्ति के लिए जैसे कोई तंत्र मंत्र यंत्र पीड़ा हो कोई शत्रुओं से पीड़ित हो कोई रोग से पीड़ित हो कोई ग्रह पीड़ा से पीड़ित हो मां विपरीत प्रत्यंगिरा देवी पूजा पाठ करने से सभी प्रकार के कष्टों से मुक्ति मिलती है इसलीये माँ को कलयुग में दया देवी के नाम से भी जाना जाताहै |




माँ विपरीत प्रत्यंगिरा का अखंड ज्योति स्वरुप

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